भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए?

0

भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए ?

क्या भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए? भारत की एकता और अखंडता की दृष्टिकोण से इस प्रश्न का उत्तर हां होना चाहिए लेकिन आज इस पश्न पर इतना विवाद चल रहा है कि नहीं होना चाहिए माननेवाले भी अनेक भारतीय है। आज भारतीयों को इतिहास का महत्व समझाना आवश्यक है। भविष्य में आदर्श समाज की संकल्पना को साकार करने के लिए अतित की घटनाओं से सिख लेकर वर्तमान में सशक्त व्यवस्थाएं निर्माण करने हेतु सुनियोजित प्रयत्न करना ही इतिहास सिखने का उद्देश्य है। दस हजार वर्षों के इतिहास में भारत ने विशाल साहित्य, समृद्ध परंपराएं और व्यापक जीवन पद्धति का निर्माण किया। जिनका भारतीय संस्कृति के निर्माण, विस्तार और विकास में बहुत बडा योगदान रहा है। प्राचीनकाल में भारत ने गणित, खगोलशास्त्र, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, वैधकशास्त्र, स्थापत्यशास्त्र तथा अनेक विषयों में बहुत प्रगति की थी। प्राचीन भारत में हुए शून्य, दशमलव प्रणाली और त्रिकोणमिती की खोज को आधुनिक विज्ञान की नींव मानी जाता है। खगोलशास्त्री सूर्य और चंद्र ग्रहण का सही समय निकालते थे। चिकित्सा पद्धति में प्लास्टिक सर्जरी भी की जाती थी। विश्व की अन्य सभ्यताओं ने भारतीयों से विज्ञान का ज्ञान प्राप्त किया था। भारत में नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में अन्य देशों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। आज विश्व में भारत का योगशास्त्र बहुत लोकप्रिय है। भारतीय संस्कृति के सामाजिक दोषों, संस्कृतिक उथलपुथलों और विदेशी आक्रमणों जैसी विपरीत परिस्थिति में भी भारतीयों ने अपने प्राचीन इतिहास का जतन किया था। लेकिन अग्रेजों ने भारत पर अपना राज्य कायम रखने के उद्देश्य से भारतीय इतिहास को विकृत पद्धति से लिखकर उसे नष्ट करने का षडयंत्र रचा। किसी ने ठिक ही कहा है कि —
“अगर आप किसी देश को बर्बाद करना चाहते हो, तो उसका इतिहास नष्ट कर दो वह देश अपने आप समाप्त हो जाएगा।”
अग्रेजों के षडयंत्र के कारण भारतीयों की मानसिकता में इतना परिवर्तन हुआ की उन्होंने अपने गोरवशाली इतिहास को न सिर्फ भुला दिया उलटे बहुसंख्यक भारतीय आज भारतीय इतिहास का विरोध करने लगे है। अतः आज भारतीय इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर को जतन करने के लिए भारतीय इतिहास का पुनः कथन करने की नितांत आवश्यकता है।

क्या भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए? भारतीय इतिहास के पुनः सत्यापन करने के दृष्टिकोन से इस प्रश्न का उत्तर हां होना चाहिए लेकिन अंग्रेजों ने विकृत पद्धती से लिखे भारतीय इतिहास के समर्थक नहीं होना चाहिए माननेवाले भी अनेक भारतीय है। आज भारतीयों को अंग्रेजों के षड़यंत्र से अवगत कराना आवश्यक है। अंग्रेजों के इतिहासकार मैक्समूलर ने भारतीयों में फूट डालो और राज्य करो इस उद्देश्य के लिए आर्य आक्रमण सिद्धांत में आर्यों ने भारत पर आक्रमण कर द्रविड़ों को दक्षिण भारत में खदेड़ दिया यह सिद्धांत प्रस्तुत किया। सिंधु सरस्वती सभ्यता, सरस्वती नदी, राम सेतु और समुद्र में डुबी द्वारका और अन्य प्रमाण मिलने पर विश्व के सामने आर्य आक्रमण सिद्धांत का षडयंत्र उजागर हो गया। उसी तरह भारत पर आर्यो के आक्रमण के कोई भी प्रमाण नही मिलने के कारण विश्व के सभी इतिहासकारों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को लगत ठहराया। इतने प्रमाण मिलने पर अंग्रेजों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को आर्य स्थलांतर सिद्धांत कहना सुरू कर दिया। उसी तरह मैकाले ने भारतीयों को गुलाम करने के लिए नई शिक्षानीति लागू करते हूए कहा था –
“मैंने भारत की ओरछोर की यात्रा की है पर मैंने एक भी आदमी ऐसा नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। मैंने इस मुल्क में अपार संपदा देखी है। उच्च उदात्त मूल्यों को देखा है। इन योग्यता मूल्यों वाले भारतीयों को कोई कभी जीत नहीं सकता, यह मैं मानता हूँ तब तक, जब तक कि हम इस मुल्क की रीढ़ ही ना तोड़ दें, और भारत की रीढ़ है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत। इसलिए मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि भारत की पुरानी शिक्षा व्यवस्था को हम बदल दें। उसकी संस्कृति को बदलें ताकि हर भारतीय यह सोचे कि जो भी विदेशी है, वह बेहतर है। वे यह सोचने लगें कि अंग्रेजी भाषा महान है अन्य देशी भाषाओं से। इससे वे अपना सम्मान खो बैठेंगे। अपनी देशज जातीय परंपराओं को भूलने लगेंगे और फिर वे वैसे ही हो जाएंगे जैसे हम चाहते हैं सचमुच एक आक्रांत एवं पराजित राष्ट्र।”
स्वतंत्र भारत के राज्यकर्ताओं ने अंग्रेजों की राह पर चलते हुए पाश्चिमात्य सिद्धांतों को लागू किया। अतः आज भारतीय इतिहास की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को संभालकर रखने के लिए भारतीय इतिहास का पुनः कथन करने की नितांत आवश्यकता है।

क्या भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए? भारतीय सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करने के दृष्टिकन से इस प्रश्न का उत्तर हां होना चाहिए लेकिन पाश्चिमात्य सिद्धांतों के समर्थक नहीं होना चाहिए माननेवाले भी अनेक भारतीय है। आज भारतीयों को पाश्चिमात्य सिद्धांत की वास्तविकता से परिचय कराना आवश्यक है। पुनर्जागरण काल के दौरान औद्योगिककरण के समय पाश्चिमात्य देशों में धर्मनिरपेक्षता, साम्यवाद और सामाजवाद इन सिद्धांतों का उदय हुआ। इन्हीं सिद्धांतों के कारण विश्व दो खेमों में बट गया। इन्हीं सिद्धांतों के कारण दुसरा महायुद्ध भी हुआ और अनेक वर्षोंतक महाशक्तियों में शीतयुद्ध चलता रहा। इन्हीं सिद्धांतों के कारण ही पाश्चिमात्य संस्कृति में अनेक विकृतियां निर्माण हुई। भारत की समस्याओं का समाधान भारतीय सिद्धांतों से करना संभव नहीं है इस सोच के कारण भारतीय राज्यकर्ताओं ने भारतीय सिद्धांत सर्वसमावेशकता, सहिष्णुता, सर्वधर्म समभाव और विविधता में एकता जैसे सिद्धांतों को अनदेखा कर भारत की समस्याओं के समाधान के लिए धर्मनिरपेक्षता, साम्यवाद और साजवाद इन पाश्चिमात्य सिद्धांतों का स्विकार किया। डॉ. बी आर आंबेडकरजी के विरोध के कारण इन सिद्धांतों का संविधान में समावेश नहीं हो सका था लेकिन आपतकाल में संविधान संशोधन कर धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद सिद्धांत संंविधान में जोड़ें गये। भारत में इन सिद्धांतों का बहुत बडे प्रमाण में दुरोपयोग होने के कारण भारत की समस्याओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अतः आज भारतीय इतिहास के दस हजार वर्षों में जिन सिद्धांतों ने भारत को विश्वगुरु पद पर आरूढ़ कराया था उन्हीं सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए भारतीय इतिहास का पुनः सत्यापन, पनर्लेखन और पुनः कथन करने की नितांत आवश्यकता है।

क्या भारतीय इतिहास का पुनः कथन होना चाहिए? भारतीय सिद्धांतों का वैश्विक योगदान अधोरेखित करने के दृष्टिकन से इस प्रश्न का उत्तर हां होना चाहिए लेकिन विज्ञान समर्थक नहीं होना चाहिए माननेवाले भी अनेक भारतीय है। आज भारतीयों को ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व समुदाय को भारतीय सिद्धांतों के गुणधर्मो से अवगत कराना आवश्यक हैं। भारतीय सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है। विश्व की कई सभ्यताएं काल के कराल में लुप्त हो गई। लेकिन भारतीय सभ्यता दस हजार वर्षों से निरंतन चली आ रही है। भारतीय सभ्यता के सिद्धांत विश्व के सबसे प्राचीन, व्यापक और परिपक्व सिद्धांत है। भारतीय सिद्धांतों के सनातन, शाश्वत और चिरंतन गुणधर्मों से न सिर्फ भारत की बल्कि विश्व की सारी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। विश्व के प्रसिद्ध इतिहासकार वील डुरंट ने लिखा है –
“भारत मानवजाति की मातृभूमि और संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की जननी थी। वह हमारे दर्शन की माता, अरबों के माध्यम से हमारे गणित की जन्मदात्री, क्रिश्चेनिटी पर भगवान बुद्ध के विचारों के प्रभाव के माध्यम से मातृवत, ग्रामीण समुदायों के स्वराज्य और प्रजातंत्र के माध्यम से माँ थी। भारत माँ हर दृष्टि से हम सब की माता है।”
आज प्राचीन और आधुनिक सभ्यताओं में संघर्ष विश्व की सबसे बडी समस्या है। प्रगत विज्ञान के कारण आज नई सभ्यता का उदय हो रहा है। नई सभ्यता के उदय के संबंध में भविष्यवेत्ता एलविन टॉफलर ने अपने पुस्तक दी थर्ड वेव्ह में लिखा है –
“हमारे जीवन में एक नई सभ्यता का उदय हो रहा है लेकिन अंधे व्यक्ति उसे मिटाने का काम कर रहे हैं। यह नई सभ्यता अपने साथ नई परिवार व्यवस्था, बदलती कार्यप्रणाली, प्रेम और जीवनशैली, एक नई अर्थव्यवस्था, नये राजकीय संघर्ष, और इसके भी ऊपर बदली हुई मानसिकता ला रही है।”
आज हम प्राचीन और आधुनिक सभ्यताओं के संक्रमण काल से गुजर रहें हैं। भारतीय सभ्यता को पाषाण युग, हिम युग, महाप्रलय, कृषि युग, कांस्य युग, लोह युग तथा विज्ञान युग की सभ्यताओं का अनुभव है। भारतीय सभ्यता का आधुनिक युग की सभ्यता के निर्माण में अनेक तरह से उपयोग किया जा सकता है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ जिस विश्व संस्कृति की कल्पना कर रहा है उसे प्राचीन भारतीयों ने पहले ही कर दिखाया था। अतः आज भारतीय इतिहास के वसुधैव कुटुंबकम सिद्धांत को संपूर्ण विश्व को सिखाने के लिए भारतीय इतिहास का पुनः कथन करने की नितांत आवश्यकता है।

– वीरेंद्र देवघरे

लेखक हे धर्म, संस्कृती, इतिहास आणि सामाजिक विषयाचे अभ्यासक व लेखक आहेत. मो.- ९९२३२९२०५१.

Leave A Reply

Your email address will not be published.